जेपी राजपूत
राष्ट्र, सत्य और मानव–धर्म
किसी भी राष्ट्र की शक्ति केवल उसकी सीमाओं या सेना में नहीं रहती। उसकी वास्तविक शक्ति उसकी संस्कृति में होती है। संस्कृति वह आधार है, जो लोगों के विचार, आचरण, मूल्य और जीवन-दृष्टि को दिशा देता है। यदि कोई राष्ट्र पवित्र और महान् बनना चाहता है, तो उसे अपने भीतर ऐसी संस्कृति को स्थापित करना होता है जो सत्य, कर्तव्य और धैर्य पर आधारित हो।
- संस्कृति – राष्ट्र की आत्मा— जिस राष्ट्र की अपनी संस्कृति मजबूत होती है, वही समय की कठिनाइयों को झेल पाता है। उदाहरण के लिए, भारत की प्राचीन परम्पराएँ आज भी मानवता, सहिष्णुता और सत्य को सर्वोच्च स्थान देती हैं। यही कारण है कि विपरीत परिस्थितियों में भी समाज की आत्मा टूटती नहीं।
यदि किसी राष्ट्र की संस्कृति नष्ट हो जाए, तो धीरे-धीरे उसकी पहचान मिटने लगती है। बिल्कुल वैसे ही जैसे जड़ो से कटे वृक्ष का अस्तित्व लम्बे समय तक नहीं टिकता।
- सत्यवादी मनुष्य और विपत्ति— सत्य पर चलने वाला मनुष्य संसार में सबसे मजबूत माना गया है, लेकिन उसका मार्ग कभी आसान नहीं होता। जब सत्यवादी पर आक्रमण होता है, तो उसका धैर्य और नैतिक शक्ति परखी जाती है। यदि वह क्षणिक क्रोध या दुख में कोई गलत कार्य कर दे, तो उसका स्वयं का तेज भी क्षीण हो जाता है।
उदाहरण— हमारे पूर्वजों ने असहनीय परिस्थितियों में भी सत्य को नहीं छोड़ा। उनके जीवन में बहुत बड़े आघात आए, पर उन्होंने अपने सिद्धान्तों से विचलित होने के बजाय और अधिक दृढ़ता से सत्य को अपनाया।
सन्देश स्पष्ट है— विपत्ति में सत्य से हट जाना, व्यक्ति के व्यक्तित्व को खो देना है।
- आपत्तियों में विचारों का त्याग – सबसे बड़ा दोष— जो व्यक्ति कठिनाई आने पर अपने ऊँचे विचारों का त्याग कर देता है, वह वास्तव में स्वयं के साथ धोखा करता है। महान् विचार व्यक्ति के लिए प्रकाश-स्तम्भ की तरह होते हैं। संकट के समय उनका त्याग कर देना ऐसा है, जैसे जहाज तूफान में अपना पतवार फेंक दे।
उदाहरण— यदि कोई व्यक्ति जीवन में संघर्ष देखकर अपने नैतिक मूल्य छोड़ दे, तो वह बाहरी सफलता तो पा सकता है, परन्तु भीतर से टूट जाता है। वही मनुष्य पाप की ओर बढ़ता है, जो परिस्थिति देखकर अपना धर्म बदल ले।
- कर्म का फल अनिवार्य है— कर्म का सिद्धान्त सीधा है— जो किया है, वही भोगना पड़ेगा। यही ईश्वरीय व्यवस्था है। फल चाहे सुख हो या दुःख, मनुष्य को उसे सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। यदि हमने कर्म किया ही है, तो उसके फल से क्यों डरें?
उदाहरण— यदि किसान बीज बोता है, तो फल आने पर उसे आश्चर्य नहीं होता। उसी तरह, जीवन में भी अपने कर्मों के परिणाम को प्रसन्नता से स्वीकार करना ही परिपक्वता है।
- स्थिरता – वृक्ष का सन्देश— जैसे वायु के वेग से वृक्ष हिलता है, पर अपनी जड़ और छाया नहीं छोड़ता, वैसे ही ऊँचे चरित्र वाले लोग विचारों की आँधी से नहीं डिगते। आज का मानव अक्सर दूसरों की राय और बाहरी परिस्थितियों से विचलित हो जाता है। यह विचलन ही जीवन को अस्थिर बनाता है।
उदाहरण— यदि कोई व्यक्ति सोशल मीडिया, समाज या वातावरण से प्रभावित होकर अपने सिद्धान्त बदलता रहे, तो वह मन से बेचैन रहता है। स्थिरता वही पाता है, जो अपने मूल्यों पर अटल रहे।
- कर्तव्य ही स्वर्ग है— जिस समय समाज में हर व्यक्ति अपने कर्तव्य को ईमानदारी से निभाता है, वही अवस्था स्वर्ग कहलाती है। स्वर्ग कोई भौतिक स्थान नहीं, बल्कि एक सामाजिक स्थिति है।
उदाहरण— यदि परिवार, समाज, शिक्षक, शासक, व्यापार—हर क्षेत्र में लोग अपने-अपने धर्म का पालन करें, तो वहाँ विवाद, अन्याय और संघर्ष कम हो जाते हैं। यह स्थिति ही धरती पर स्वर्ग का रूप है।
- सत्याभ्यासी और परम नियम— जो व्यक्ति सत्य का अभ्यास करता है, वह प्रकृति की व्यवस्था के विपरीत नहीं चल सकता। सत्य का पालन करने वाले योगी परमात्मा के नियमों का उद्घाटन करते हैं, क्योंकि उनका मन आसक्ति और भ्रम से मुक्त होता है। ऐसे व्यक्ति समाज को दिशा दिखाते हैं, मार्गदर्शन देते हैं।
राष्ट्र की पवित्रता उसके लोगों के चरित्र से बनती है। सत्य, स्थिरता, कर्तव्य और कर्म की स्पष्ट समझ— ये वे चार स्तम्भ हैं, जो किसी भी समाज को उन्नत बनाते हैं।
मनुष्य का जीवन तभी सार्थक होता है जब वह विपत्ति में भी अपने विचारों को न छोड़े, कर्मफल को स्वीकार करे और सत्य को अपनी जीवन-पद्धति बना ले। यही वह मार्ग है, जो व्यक्ति को ऊँचा और राष्ट्र को महान बनाता है।
अनिल अवस्थी राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी राष्ट्रीय हिंदू युवा संगठन अखंड भारत





