मौसम ने मुझको झकझोरा पूछा बातों-बातों में
क्या खोया है क्या पाया है प्रेम भरी सौगातों में।
नीर अगर है इन आँखों में, तो फिर प्यास रही क्यूँ है,
प्रेम नहीं है इस अन्तस में, तो एहसास वही क्यूँ है।
कौन लुटेरा लूट ले गया मेरे मन की इस निधि को,
मन बेचारा समझ न पाया प्रेमनगर की इस विधि को,
अधनींदी-सी सोचा करती काली-काली रातों में,
क्या खोया है क्या पाया है प्रेम भरी सौगातों में।
तारों ने जो चुटकी ली तो मैं ख्वाबों से जाग गई,
इक बिजली-सी कौंधी हिय में बैरन निंदिया भाग गई,
लाख जतन करने पर भी वो पास नहीं मेरे आई,
जाग रही थी साथ लिए मैं जाने किसकी परछाई,
लाभ अनोखा मैंने पाया अपने उर के खातों में,
क्या खोया है क्या पाया है प्रेम भरी सौगातों में।
अंबर की बस चादर ओढ़ी और धरा का बिस्तर था,
बंध सभी टूटे पल भर में आज मिला मन का वर था।
प्रेम मिलन की बेला थी तो नैनों में संवाद हुए,
काया ने अनुवाद किए तो भावों के उन्माद हुए,
डूबी-उतरी, उतरी-डूबी भावों के संघातों में,
क्या खोया है क्या पाया है प्रेम भरी सोगातों में।
भोर हुए जब जागी मैं तो, नवल प्रभास नया-सा था,
प्यास नहीं थी नीर नहीं था बस अहसास नया-सा था,
जिसको ढूँढ़ा भव सागर में वो तो अंतरमन में था,
चारों दिश में एक वही जो आँखों के दर्पण में था,
अब सौ प्रतिशत ही मेरा है मिलता जो अनुपातों में,
ख़ुद को खोकर उसको पाया प्रेम भरी सौगातों में।
©रश्मि ममगाईं







